सफला एकादशी

saphala-ekadashiसफला एकादशी व्रत पौष मास के कृ्ष्ण पक्ष की एकाद्शी के दिन किया जाता है. इस दिन भगवान नारायण की पूजा का विशेष विधि-विधान है. इस व्रत को धारण करने वाले व्यक्ति को व्रत के दिन प्राता: स्नान करके, भगवान कि आरती करनी चाहिए. और भगवान को भोग लगाना चाहिए. ब्राह्मणों तथा गरीबों, को भोजन अथवा दान देना चाहिए. रात्रि में जागरण करते हुए कीर्तन पाठ आदि करना चाहिए. रात्रि में जागरण करते हुए कीर्तन पाठ करना अत्यन्त फलदायी रहता है. इस व्रत को करने से समस्त कार्यो में सफलता मिलती है. यह एकादशी अपने नाम के अनुसार व्यक्ति को सफलता देती है.

पौष माह के कृ्ष्ण पक्ष की एकाद्शी का नाम सफला है. इस एकाद्शी के देवता नारायण है. सफला एकादशी के विषय में कहा गया है, कि यह एकाद्शी व्यक्ति को सहस्त्र वर्ष तपस्या करने से जिस पुन्य की प्रप्ति होती है. वह पुन्य भक्ति पूर्वक रात्रि जागरण सहित सफला एकादशी का व्रत करने से मिलता है.

एकादशी का व्रत करने से जो पुन्य प्राप्त होता है, वह पुन्य कुरुक्षेत्र तीर्थ स्थान में सूर्यग्रहण के समय स्नान करने से भी प्राप्त नहीं होता है. सफला एकादशी से कई पीढियों के पाप दूर होते है. एकादशी व्रत व्यक्ति के ह्रदय को शुद्ध करता है. और जब यह व्रत श्रद्वा और भक्ति के साथ किया जाता है. तो मोक्ष देता है.

सफला एकादशी के व्रत में देव श्री नारायण का पूजन किया जाता है. जिस व्यक्ति को सफला एकाद्शी का व्रत करना हों. जिस व्यक्ति को यह व्रत करना हो, उस व्यक्ति के लिए व्रत के नियम दशमी तिथि से ही प्रारम्भ हो जाते है. उसे व्रत के दिन व्रत के सामान्य नियमों का पालन करना चाहिए. और जहां, तक हो सके व्रत के दिन उसे सात्विक भोजन करना चाहिए. तथा भोजन में उसे नमक का प्रयोग बिल्कुल नहीं करना चाहिए. भोजन के लिये तांबे के बर्तन का प्रयोग करना भी उचित नहीं रह्ता है. दशमी तिथि कि रात्रि में एक बार ही भोजन करना चाहिए

एकादशी के दिन उपवासक को शीघ्र उठकर, स्नाना आदि कार्यो से निवृ्त होने के बाद व्रत का संकल्प भगवान श्री विष्णु के सामने लेना चाहिए. संकल्प लेने के बाद धूप, दीप, फल आदि से भगवान श्री विष्णु और नारायण देव का पंचामृ्त से पूजन करना चाहिए.

उपवासक को व्रत के दिन की अवधि में दिन में सोना नहीं चाहिए. और रात्रि में भी उसे विष्णु नाम का पाठ करते हुए जागरण करना चाहिए. द्वादशी तिथि के दिन स्नान करने के बाद ब्राह्माणों को अन्न और धन की दक्षिणा देकर इस व्रत का समापन किया जाता है.

चम्पावती नगरी में एक महिष्मान नाम का राजा राज्य करता था. उस राजा के चार पुत्र थें. उन पुत्रों में सबसे बडा लुम्पक, नाम का पुत्र महापापी था. वह हमेशा बुरे कार्यो में लगा रहता था. यहां तक की ऎसे कार्यो में अपने पिता क धन व्यर्थ करने से भी पीछे नहीं हटता था.

वह सदैव देवता, ब्राह्माण, वैष्णव आदि की निन्दा किया करता था. जब उसके पिता को अपने बडे पुत्र के बारे में ऎसे समाचार प्राप्त हुए, तो उसने उसे अपने राज्य से निकाल दिया. जब लुम्पक सबके द्वारा त्याग दिया गया, तब वह सोचने लगा, कि अब मैं क्या करूं.? कहाँ जाऊँ? अन्त में उसने रात्रि को पिता की नगरी में चोरी करने की ठानी.

वह दिन में बाहर रहने लगा और रात को अपने पिता कि नगरी में जाकर चोरी तथा अन्य बुरे कार्य करने लगा. रात्रि में जाकर निवासियों को मारने और कष्ट देने लगा. पहरेदान उसे पकडते और राजा का पुत्र मानकर छोड देते थे. जिस वन में वह रहता था. वह भगवान को बहुत प्रिय था. उस वन में एक बहुत पुराना पीपल का वृक्ष के नीचे, महापापी लुम्पक रहता था. कुछ दिनों के बाद पौष माह के कृ्ष्ण पक्ष की दशमी के दिन वह शीत के कारण मूर्छित हो गया. शीत के कारण उसके हाथ-पैर जकड गयें. उस दिन वह रात्रि उसने बडी कठिनता से बिताई. अगले दिन प्रात: होने पर भी उसकी मूर्छा न गई. दोपहर में गर्मी होने पर उसे होश आया.

शरीर में कमजोरी होने के कारण वह कुछ खा भी न सकें, आसपास उसे जो फल मिलें, उसने वे पीपल कि जड के पास रख दिये. और कहा कि इन फलों को हे भगवान आप ही खा लिजिए. ऎसा कहकर वह फिर से मूर्छित गया. रात्रि में उसकी मूर्छा खुली. उस महापापी के इस व्रत से तथा रात्रि जागरण से भगवान अत्यन्त प्रसन्न हुए. और उसके समस्त पाप नष्ट हो गये़.

लुम्पक ने जब अपने सभी पाप नष्ट होने की बात सुनी तो वह बहुत प्रसन्न हुआ. वह शीघ्र सुन्दर वस्त्र धारन कर अपने पिता के पास गया. उसके पिता ने उसे अपना राज्य सौंपकर वन का रास्ता लिया.