हरिदास जी

Haridas Jiअखिल रसिक चक्र चूड़ामणि परम रसावतार श्री गोस्वामी हरिदास जी महाराज इस भूतल पर नित्यविहार को प्रकट करने के लिये प्रिया-प्रियतम के निज महल से अवतरित हुए थे। उस समय विधर्मियों का साम्राज्य था। धर्म, कर्मकाण्ड के भँवर में फ़ंसा हुआ था, तब वह अति सूक्ष्म धर्म अर्थात् नित्यविहार स्वामीजी महाराज ने प्रकट किया। उन्होंने जिस रस-रीति का प्रवर्तन किया वह अनोखी थी। जिस पथ को प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े मुनिजन नेत्र बंद कर नासिका पकड़ कर ध्यान साधते हैं, वेद जिस पथ को प्राप्त नहीं कर सकता, उसी अनन्य रसिकों के बाँके पथ को स्वामी श्री हरिदास जी महाराज ने विश्व में प्रकाशित किया और नि:शंक होकर नवीन रस-रीति का प्रवर्तन किया, जैसा की स्वयं बल्लभ-पथगामी श्रीगोविंद स्वामी जी ने उनकी प्रशंसा में लिखा है-

रसिक अनन्यनि कौ पथ बाँकौ।
जा पथ कौ पथ लेत महामुनि, मूँदत नैंन गहैं नित नाकौ॥
जा पथ कौ पछितात हैं वेद, लहैं नहिं भेद रहैं जकि जाकौ॥
सो पथ श्रीहरिदास लह्यौ, रसरीति की प्रीति चलाइ निसाँकौं॥
निसाननि बाजत गाजत गोविन्द, रसिक अनन्यनि कौ पथ बाँकौ॥

श्री स्वामी हरिदास जी महाराज का जन्म इस धराधाम पर संवत 1535 (सन 1478) में भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी को उस समय हुआ था जब ब्रज में वृषभानु नंदिनी श्री किशोरीजी का जन्मोत्सव मनाया जा रहा था। उनके पिता प्रसिद्ध शिरोमणि श्री अशुधीर जी महाराज थे और माता का नाम श्रीमती गंगा देवी था। यह परिवार मूलतः पंजाब के मुल्तान प्रदेश का निवासी था लेकिन ब्रज-प्रेम के वशीभूत होकर श्री आशुधीर जी महाराज कोल (ब्रज की कोर) आकर बस गए थे। वहीं श्री स्वामी हरिदासजी महाराज का जन्म हुआ और इन्हीं के नाम पर उस परम पवित्र स्थान का नाम ‘हरिदासपुर’ प्रसिद्ध हुआ। यह स्थान अलीगढ से 3 मील दूर खैर मार्ग पर स्थित है। इसी गाँव में श्री स्वामी हरिदास जी महाराज के भाइयों -श्री स्वामी जगन्नाथ जी एवं गोविन्द जी का जन्म हुआ।

श्री स्वामी हरिदास जी अपने दिव्य गुणों का प्रकाश करते हुए घर में 25 वर्ष तक रहे। उनका विवाह एक परम सुंदरी ब्राह्मणी कन्या से हुआ परन्तु श्रीस्वामी हरिदास जी जिस दिव्य रस में मग्न थे, उसके समक्ष अन्य सब बंधन व्यर्थ थे। उनकी पत्नी जब हरिदास जी के दर्शन को आईं तभी दीपक की लौ से उनका शरीर छू गया और वे प्रकाश रुपी होकर श्री स्वामी जी के चरणों में विलीन हो गईं, यह एक विलक्षण घटना थी।

अपने समस्त धन-धाम का परित्याग कर श्रीस्वामी हरिदास जी अपने पूज्य पिता श्री अशुधीर जी महाराज से दीक्षा लेकर श्रीधाम वृन्दावन में परम रमणीय निधिवन नामक नित्यविहार की भूमि में आकर निवास करने लगे। उस समय वृन्दावन एक गहन वन था। स्वामी जी ने वृन्दावन में निवास किया और वहाँ परम विलक्षण रस-रीति का प्रवर्तन किया। श्री स्वामी हरिदास जी महाराज नित्य-निकुँज लीलाओं में ललित स्वरुप हैं वे नित्यविहार के नित्य समुद्र में रस मग्न रहकर प्रिया-प्रियतम का साक्षात्कार करते हुए उन्हीं की केलियों का गान करते थे।
श्री स्वामी हरिदास जी संगीत के महँ आचार्य थे। जिस समय ग्वालियर का राजा मानसिंह तौमर संगीत के विद्वानों को एकत्र कर ब्रजभाषा में ध्रुपदों की रचनाओं का संग्रह कर रहा था। उसी समय हरिदास जी इस पावन निधिवनराज में नित्यविहार के रस से सराबोर ध्रुपदों की रचना कर रहे थे। इनके तानसेन, बैजुबाबरा आदि शिष्यों ने संगीत का प्रचार-प्रसार किया। तानसेन को भी इनके दिव्य संगीत का एक कण मात्र प्राप्त हुआ था। तानसेन अपने आश्रयदाता सम्राट अकबर के साथ वृन्दावन में श्रीहरिदास जी के दर्शन के लिए आया था। अकबर के आगमन पर अनेक कलाकारों ने विभिन्न चित्रों की रचना की, ये चित्र आज भी विभिन्न संग्रहालयों में हैं। इनमें श्री स्वामी हरिदास जी को तानपूरे पर संगीत गान करते हुए, सामने तानसेन को बैठा हुआ, उसके पीछे सम्राट अकबर को खड़ा हुआ चित्रित किया गया है। श्री स्वामी हरिदास जी महाराज अष्टादश सिद्धांत के पद, श्रीकेलिमाल आदि ग्रंथो के रचयिता हैं।