बसन्त पंचमी

सरस्वती वन्दना: –
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता, या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता, सा मां पातु सरस्वती भगवती निः शेषजाड्यापहा॥

बसन्त पंचमी अर्थात्‌ बसन्त ऋतु का आगमन। यह पर्व माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचम तिथि को मनाया जाता है। भारतीय संस्कृति में ऋतुओं का राजा बसंत को कहा जाता है। पतझड़ के बाद प्रकृति को बेसब्री से बसंत का इंतजार रहता है। इसके स्वागत के लिये प्रकृति भी नया चोला ओढ़ती है। आम के पेड़ों पर मोजर, वृक्ष की शाखायें नये पत्तों के फ़ूटने से खिल-खिला उठती हैं। खेतों में लहराते सरसों के पीले फ़ूल, बागों में कोयल की कूक और जंगल में मग्न होकर नाचता मोर बसंत के आगमन का आभास करा देते हैं। पुराणों में कहा गया है कि इस दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की उपासना करने से विद्यार्थी को ज्ञान और गृहस्थ को सद्‌बुद्धि की प्राप्ति होती है। विद्यालयों एवं मन्दिरों में इस दिन सरसों के फ़ूलों से माँ सरस्वती जी की पूजा की जाती है।

ब्रज में भी बसंत का स्वागत बहुत रस, उत्साह, उल्लास के साथ किया जाता है। इस दिन ब्रजभूमि भी रंग बिरंगी चुनरी ओढ़ लेती है। ब्रजवासी अपने-अपने घरों में श्रीराधा-कृष्ण की उपासना के साथ ही माँ सरस्वती की पूजा भी करते हैं। मंदिरों और शिक्षण संस्थानों में सरस्वती पूजन की धूम के साथ ही ब्रज गलियारों, मन्दिरों में होली का झंडा भी गाढ़ दिया जाता है। ब्रज में तो होली की शुरुआत बसन्त के आते ही हो जाती है। ब्रज के मन्दिरों में समाज गायन प्रारम्भ हो जाता है। बांकेबिहारीजी मन्दिर में भी बसन्त पंचमी के साथ ही होली की धूम शुरू हो जाती है। आज के दिन श्रीबांकेबिहारी जी को पीले रंग की पोशाक धारण करायी जाती है एवं श्रीबिहारीजी के कपोलों पर गुलाल के गुलचे होली की पूर्णिमा तक नित्य दोनों समय लगये जाते हैं और हलुवा, मेवा और केसर युक्त पकवानों का प्रसाद लगाया जाता है। मन्दिर में आरतियों के समय प्रसाद स्वरूप गुलाल उड़ाया जाता है एवं सभी गोस्वामीजन आज से होली के मधुर गीत गाकर ठाकुर जी को रिझाते हैं।